hindisamay head


अ+ अ-

कविता

एक अधूरी कहानी का मौन पनघट

वंदना गुप्ता


तृप्ति अतृप्ति के पनघट पर

उँसास भरता मन का घट

ना जाने क्यों रीता ही रहता है

काया के गणित में उलझा

मन का पंछी काया से परे

एक निर्बाध उड़ान को जब विचलित होता है

तब प्रेम के नए समीकरण गढ़ता है

तुम प्रेमी मेरे मैं प्रेयसी तुम्हारी

चाहे प्रीत की ना कोई रीत हमारी

फिर भी साँसों की स्याही में रूह उतरी है हमारी

जहाँ सिर्फ इक दूजे की चाहत ही परवान चढ़ी

सुनो...

हमारा प्रेम क्या सफर तय कर पाएगा

क्या कोई मुकाम पा पाएगा

जहाँ तुम और मैं

अपनी-अपनी राह चलते हुए

एक फासले से इक दूजे को गुनते हुए

कुछ रेशमी नर्म रूमाल पर कढ़े बूँटे से

अहसासों को समेट पाएँगे?

पता नहीं ...जानाँ

मोहब्बत ये कौन सी है

पहली या दूजी

मैं तो महरूम ही रहा

जिसे मोहब्बत समझा

उसने ही दगा दिया

और हर शय से विश्वास सा उठ गया

फिर एक अरसे बाद

तुम्हारी आँखों ने कुछ कहा

जिसे मैंने अनदेखा किया

चोट खाए शहरों की दीवारों पर निशाँ बाकी जो थे

कैसे कदमबोसी करते

कैसे डग आगे बढते

बस कतरा कर निकलते रहे

फिर भी ना जाने कैसे

तुम्हारे अनछुए स्पर्श ने

तुम्हारे अनकहे कथन ने

मुझमें बैठा भ्रम तोड़ दिया

और मोहब्बत से रीता घट मेरा लबालब भर गया

अब दहकते अंगारों से गुजरता हूँ और स्पर्श से डरता हूँ

तृप्त हूँ तुम्हें ना पाकर

सुना है ...पाने पर भी अतृप्ति हुआ करती है

फिर क्या करूँगा तुम्हें पाकर

जहाँ तुम्हें ही खो दूँ

हाँ ...खोना ही तो हुआ ना

एक निश्छल प्रेम का

काया के भँवर में डूबकर

और मैं जिंदा रखना चाहता हूँ हमारे प्रेम को

अतृप्ति के क्षितिज पर... देह के भूगोल से परे

और एक साया सा

मेरी आँखों मे आकर गुजर गया

जब तुमने अपना सच कहा

तुम्हारे प्रेमबोध के गणित से यूँ तो चकित हुई

फिर भी मेरी भावना ना जाने क्यूँ आहत हुई

शायद यही फर्क होता है प्रेम की अनुभूतियों में

खासकर जब इस तरफ पहला प्रेम हो

और उस तरफ ...दूसरी बार अलाव जला हो

अतृप्त होकर तृप्त होने के

तुम्हारे गणित मे उलझे

बेशक हमारे अस्तित्वों ने

अपनी-अपनी राह पकड़ी

फिर भी एक खलिश सीने में मेरे चुभती रही

दिन महीने साल तारीखें बदलती रहीं

ना तुम मिले ना मैं मिली

फिर भी इक आग थी जो दोनों तरफ जलती रही

रेगिस्तान की आग ...एक बादल को तरसती रही

ना जाने कौन सा सावन था

जो तुम्हारे पनघट पर मुझे वापस ले आया

क्योंकि

बिना सावन के कब धरा की प्यास बुझी है

कब उसकी कोख में कोई उम्मीद जगी है

और मैं चाहती थी ...उम्मीद का लहलहाता संसार

तुम्हारे संग, तुम्हारी चाहत के संग

और मिटा ली जन्मों की प्यास धरा ने पूर्ण होकर

संतृप्त होकर अपने सत्पात्र के साथ संलग्न होकर

एक घड़ा तृप्त हुआ अपनी संपूर्णता से

मगर दूजा घट ...अतृप्ति मे तृप्ति चाहने की प्यास के साथ

एक नई कहानी अधूरी कहानी का शुभारंभ हुआ...

किसे क्या मिला, कौन मंजिल पर पहुँचा

कोई मायने ही नहीं रहा...

क्योंकि

कभी कभी पूर्णता भी अपूर्णता की द्योतक होती है

जब कोई बीज अंकुरित ना होना चाहे ...बस बीज रूप में ही रहना चाहे

ना जाने कैसा प्रेम का पनघट था

ना जाने कैसे प्रेम के पंछी थे

पावनता के छोरों पर खड़े क्यूँ भटक रहे थे अपने अपने मनों के अस्तबल में

जहाँ घोड़ों की लगाम ...एक ने तृप्ति के तो दूजे ने अतृप्ति के खूँटे से बाँधी थी

कहानी मुकम्मल हुई या नई शुरू हुई नही मालूम

बस इतना था सुना कोई दरवेश इक तान सुना रहा था

मन बंजारे तू क्यों जगा रे

बता तो जरा तुझे क्या मिला रे

कहानियों को मुकम्मल करने के लिए

पीड़ा की बारहदरियों से गुजरना होता है

इसलिए कहता हूँ

एक अधूरी कहानी का मौन पनघट हूँ मैं

जहाँ अब कुंडियाँ कितनी खड़काओ ...कोई दस्तक पहुँचती ही नहीं

सुना तो है लोगों से ...शायद जिंदा हूँ मैं ...मगर क्या सच में?

चलो कोई तो पूर्ण हुआ ...फिर चाहे मेरा मौन का मगध मौन ही रहा

ओ मेरी अतृप्ति में तृप्ति ढूँढ़ने की ख्वाहिश तुझे अब उम्र भर ख्वाहिश बन ही जीना है!!!


End Text   End Text    End Text

हिंदी समय में वंदना गुप्ता की रचनाएँ